डीपफेक वीडियो इतने एडवांस हो चुके हैं कि एक आम आदमी के लिए इसे पकड़ना लगभग नामुमकिन-सा है। रूस, यूक्रेन, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों के आम चुनावों में डीपफेक का खूब इस्तेमाल हुआ। इसके कारण कई जगहों पर अराजकता की स्थिति फैल गई लेकिन अब भी दुनिया भर में इसे रोकने का कोई व्यावहारिक उपाय किसी के पास नहीं है। आखिर इसे पकड़ना कितना मुश्किल है, यह कितना खतरनाक हो गया है और इसका भविष्य क्या होगा? इन सभी मुद्दों पर आउटलुक के राजीव नयन चतुर्वेदी ने साइबर इंटेलिजेंस ग्लोबल एलएलपी के निदेशक विष्णु दत्त से बातचीत की। संपादित अंश:
आपकी कंपनी क्या करती है और आपके पास कैसे क्लाइंट आते हैं?
शुरुआत में डीपफेक का इस्तेमाल फाइनेंशियल फ्रॉड के लिए किया जाता था। अब हमारे पास क्लाइंट आते हैं कि यह फलां वीडियो है, जिसमें एक पुलिस वाला हमसे कुछ पैसों की मांग कर रहा है। हम ऐसे ही डीपफेक वीडियो को एनालाइज करते हैं और बताते हैं कि ये वीडियो सही है, फेक है या मॉर्फ्ड है।
पता लगाने के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं ?
इससे पहले कि हम जानें कि डीपफेक को कैसे पकड़ा जाए, यह जानना जरूरी है कि डीपफेक कितने खतरनाक हो गए हैं। पहले मॉर्फ्ड वीडियो बनाए जाते थे जिसमें एक चेहरा हटाकर दूसरा चेहरा लगा दिया जाता था। उसे आसानी से पकड़ा जा सकता था, लेकिन अब एआइ आपके चेहरे के अलावा आपके शरीर का वजन, त्वचा का रंग की नकल करके तस्वीर तैयार करता है। उसकी असलियत पहचानना काफी मुश्किल है। अब आते हैं आपके सवाल पर कि हम इसे कैसे पकड़ते हैं? क्लोन की गई आवाज की प्रामाणिकता जानने के लिए हमारे पास 32 पैरामीटर हैं। अगर कोई आवाज इन सभी पैरामीटर पर फिट नहीं बैठती तो हम कह सकते हैं कि यह वीडियो फर्जी है। आम तौर पर एआइ से बनाए वीडियो में आंखों, पुतलियों और होठों पर काम किया जाता है। जब हम बोलते हैं तो हमारी आवाज के साथ-साथ शरीर के ज्यादातर अंग हिलते-डुलते हैं, लेकिन डीपफेक वीडियो में ये सारी चीजें नहीं मिलती हैं। वीडियो में आदमी बोलता है लेकिन अंग स्थिर रहता है। हमारे पास सॉफ्टवेयर है जिसकी मदद से हम ऐसे डीपफेक का पता लगाते हैं।
डीपफेक कितना एडवांस हो गया है और आप इसका भविष्य कैसा देखते हैं?
आप जितने भी एआइ जेनरेटेड डीपफेक देखते हैं, वे अभी शुरुआती दौर में हैं। यह अभी सिर्फ 5 प्रतिशत ही विकसित हुआ है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का विकास अभी बाकी है। जैसे-जैसे यह इवॉल्व होता जाएगा, डीपफेक को पकड़ना मुश्किल होता जाएगा। कुछ साल में आप देखेंगे कि हम किसी सॉफ्टवेयर में कुछ टेक्स्ट डाल देंगे और एक पूरा वीडियो या डॉक्यूमेंट्री तैयार हो जाएगी।
डीपफेक की शुरुआत कब हुई थी?
मॉर्फ्ड वीडियो भी डीपफेक का ही एक प्रकार है। इसकी शुरुआत काफी समय पहले हुई थी। डीपफेक जैसे वीडियो तो 2000 में ही आने लगे थे, हालांकि उस समय तकनीक इतनी उन्नत नहीं थी। इसे 2010 के आसपास डीपफेक कहा जाने लगा जब मॉर्फ्ड ऑडियो-वीडियो इतने एडवांस हो गए कि उन्हें पकड़ना मुश्किल होने लगा। आने वाले समय में यह इतना खतरनाक हो जाएगा कि इसे पकड़ना हमारे लिए सिरदर्द बन जाएगा।
आपको एक डीपफेक वीडियो पकड़ने में कितना वक्त लगता है?
डीपफेक को पकड़ने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगता है। अगर कोई डीपफेक वीडियो 2 मिनट का है तो हमें इसके पकड़ने में बस 5 मिनट लगेगा। हम कुछ डिटेक्टिव एजेंसियों और मीडिया हाउसों के लिए ऐसे लैब भी बना रहे हैं जिसके इस्तेमाल से वो डीपफेक को पकड़ सकते हैं।
हाल ही में दावोस में दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों की बैठक हुई जहां उन्होंने डीपफेक को रोकने के लिए कई प्लान बनाए। उसमें वीडियो पर वाटर-मार्किंग की भी बात चली। यह कितना फुलप्रूफ सॉल्यूशन है?
इससे कुछ नहीं होगा। वाटरमार्किंग तब काम आएगी जब एक बड़ी कंपनी किसी वीडियो का बड़े स्तर पर प्रोडक्शन कर रही है। यह ओपन-एंडेड टेक्नोलॉजी है, ऐसे में ये डीपफेक कोई भी बना सकता है। अधिकतर वीडियो जो आप सोशल मीडिया पर देखते हैं वे ब्लैक मार्केट से आते हैं।
क्या गांव में बैठा वोटर इतना सक्षम है कि डीपफेक वीडियो को पकड़ सके?
बिल्कुल नहीं। देश में करोडों ऐसे लोग हैं जो मोबाइल का इस्तेमाल सिर्फ फोन करने के लिए करते हैं। उन्हें ठीक से व्हाट्सऐप चलाना भी नहीं आता है। सोशल मीडिया पर वे सिर्फ रील्स देखते हैं। आम आदमी के लिए डीपफेक वीडियो को पकड़ना बहुत मुश्किल है।
क्या भारत में कानून डीपफेक से लड़ने के लिए सक्षम है?
नहीं। भारत में अभी ऐसा कोई कानून नहीं है जो डीपफेक को परिभाषित करता हो। ऐसे मामलों में सिर्फ आइटी एक्ट लागू होता है, जो डीपफेक के लिए काफी नहीं है। सरकार ने अभी तक सिर्फ एक अधिसूचना जारी की है कि अगर किसी के प्लेटफॉर्म पर कोई डीपफेक वीडियो पाया जाता है, तो उसे जवाबदेह ठहराया जाएगा। डीपफेक को लेकर देश में कोई व्यावहारिक कानून नहीं है।