किसान उत्पादक संगठन (FPO) या यूँ कहिए, प्रगतिशील सहकारिता विचार का पक्ष।
मानव प्रकृति पर्यावरण से अलग अस्तित्व में नहीं रह सकती, और इस लिए कम से कम भारत में, ऐतिहासिक और स्वाभाविक रूप से कृषि और उससे जुड़ी तमाम गतिविधियाँ हमेशा से जीवन का आधार रही हैं।
भारत के इतिहास और संस्कृति में, खेती और शिल्पकारी से सोंधी मिटटी जैसी देशज विविधता प्रतीत होती हैं। यही कारण है की आज भी भारत में ग्रामीण समाज तेज़ रफ़्तार से बढ़ते शहरीकरण से प्रभावित तो है, लेकिन बड़े महानगरीय शहरों के स्वाभाव के विपरीत, मौलिक रूप से आज भी अपनी जड़ों को विचार और आपसी संबंधों से ही सींच रहा है।इसमें भी कोई दो राय नहीं के महानगरों से सटे ग्रामीण क्षेत्र भी आटे में नमक बराबर ही सही, पूँजीवाद अर्थव्यवस्था से प्रभावित है।इसे एक सन्दर्भ में यूँ भी कहा जा सकता है की ग्रामीण समाज की समावेशी जीवनशैली, मुनाफ़ाख़ोरी या सट्टेबाज़ी की जड़ों से भिन्न हैं। यहाँ पर मुनाफ़ाख़ोरी और सट्टेबाज़ी का सन्दर्भ किसी अपराध से नहीं है, बल्कि उस केंद्रीकृत वित्त पोषित जीवन शैली से है जो भावहीन, आत्महीन - बौद्ध की प्राप्ति के लिए, कृत-निशचयित समावेशीकरण के लिए किसी बड़े कॉरपोरेट संघ का आभारी है।
सवाल यह है के यदि हम वास्तव में समावेशीकरण चाहते हैं तो फिर हमको सहकारिता जैसे लगभग १०० वर्ष पुराने जीवंत और महत्वपूर्ण आंदोलन को समझना चाहिए।या फिर अनेक छोटे छोटे समुदाय के नेतृत्व वाले सामाजिक हस्तक्षेपों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए, उनकी चर्चा करनी चाहिए और उन्हें पूंजीवादी (साहूकारी) शहरी निवेशीकरण से दबाना या गुमराह नहीं करना चाहिए। ये बात सही है की एक प्रगतिशील सहकारिता विचार किसी साहूकार देवदूत को अपना मसीहा नहीं बना बैठता ना ही उनका कोई वर्गीकरण करता है।
ख़ैर, आगे बढ़ते हैं।भारत में प्रत्येक राज्य का शिल्प और कृषि प्रथाएं-स्वभाव विभिन्न साम्राज्यों के प्रभाव को दर्शाता है।सदियों से, कृषि आधारित जीवन, और शिल्प यहाँ के ग्रामीण समुदायों के भीतर एक संस्कृति और परंपरा के रूप में सन्निहित है।
इसी सन्दर्भ में हमने भी कुछ कार्य प्रगति करी है।
जैसा की आप जानते ही होंगे, हम विभिन्न कृषि और ग़ैर-कृषि क्षेत्रों को सीखने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में हम अलग-अलग स्थानों में छह घराट (पानी के बहाव से - टरबाइन द्वारा संचालित आटा मिल) को पुनर्जीवित करने में सक्षम भी हुए हैं। हम साथ-साथ विभिन्न प्रकार के शिल्प, अनाज, खाद्य और आवश्यक - तेल उत्पाद, खाद आदि के उत्पाद और व्यवसाय के लिए भी रास्ते तलाश रहे हैं। सभी काम समुदाय के नेतृत्व में हुए हैं और इसीलिए, अधिकतर प्रोत्साहन विकेन्द्रीकरण और समावेशीकरण की ओर ही संकेत करता है। अब हम कृषि क्षेत्र में अपनी शिक्षा हासिल करने और बढ़ाने के लिए भी काम कर रहे हैं।
हमें इस क्षेत्र में कई अनुभवी और जाने माने पेशेवरों से समर्थन मिला है जो हम सबका मार्गदर्शन करने के लिए भी तैयार हैं।
उदाहरण के लिए, हम 'किसान उत्पादक संगठन' (FPO) के बारे में जानने के इच्छुक हैं, जो कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत किये जाते हैं, लेकिन मूल रूप से उन कृषक परिवारों के स्वामित्व में हैं जो कठिन परिस्थितियों से जूझ रहे हैं।
इस तरह के समूहों की स्थापना ने हमेशा हमें आकर्षित किया है और हमारा कार्य आधारित आचरण भी कमोबेश लगभग उसी तरह का ही है जैसे कोई सहकारी संस्था काम करती है।
हालाँकि, सांख्यिकीय रूप से, ऐसा प्रतीत होता है कि जब हम सहकारी समितियों और किसान उत्पादक कंपनियों (FPO's), आदि की बात करते हैं तो आत्मनिरीक्षण करने के लिए बहुत कुछ होता है।
इस पृष्ठभूमि और संदर्भ के साथ, हम निकट भविष्य में कम से कम दो किसान उत्पादक संगठन (FPO) स्थापित करने, या फिर छोटे छोटे कई समूहों को साथ जोड़ने का विचार कर रहे हैं ।
समावेशीकरण की हमारी समझ आर्थिक गतिविधियों की प्रकृति के साथ निहित है - उससे वंचित नहीं। हमने कई जगह उच्च स्तर के सार्वजनिक हित और सफलता का अनुभव भी किया है जहां बराबर की भागीदारी हो और काम स्पष्ट रूप से विकेंद्रीकृत हो, और हाँ, जहाँ पूर्ण रूप की स्वायत्तता को बढ़ावा दिया जा रहा हो।
आप को जान कर ख़ुशी होगी के हमारे साथ काम करने वाले लगभग सभी परिवार मूल रूप से किसान और मज़दूर समाज से हैं।विडंबना यह है कि विभिन्न कारणों से उनका कृषि से बहुत कम लेना-देना रह गया है। इसमें कोई दो राय नहीं की पहाड़ों में किसानी करना, मैदानी इलाकों की तुलना में कठिन है। यह कहकर हम कोई तुलनात्मक विचार नहीं, केवल विभिन्न क्षेत्रीय और भौगोलिक परिस्थितों को उजागर कर रहे हैं।
अब हम और भी ज़्यादा पहाड़ी और मैदानी इलाकों में खेती करने वाले परिवारों को अपने साथ जोड़ना चाह रहे हैं, और उनसे सीखना चाहते हैं। हमारा ध्यान इस बात पर है कि पारंपरिक कृषि इस तरह से जारी रहे कि, युवा वर्ग किसानी करने को प्रेरित हों, सीमांत किसान वास्तव में इससे लाभान्वित हों और कृषि उद्यमिता को बढ़ावा देने में भी सक्षम हों। यह चुनौतीपूर्ण तो है परन्तु सोचे समझे, समुदाय आधारित, वैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक हस्तक्षेप हों, तो असंभव नहीं।
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