कुछ विचारप्रेमचंद के चुने हुए निबन्धों का संग्रह है। इसका प्रकाशन सरस्वती-प्रेस, बनारस द्वारा १९३९ ई॰ में किया गया था।
"हम साहित्यकारों में कर्मशक्ति का अभाव है। यह एक कड़वी सचाई है; पर हम उसकी ओर से आँखें नहीं बन्द कर सकते। अभी तक हमने साहित्य का जो आदर्श अपने सामने रखा था, उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। कर्माभाव ही उसका गुण था; क्योंकि अक्सर कर्म अपने साथ पक्षपात और संकीर्णता को भी लाता है। अगर कोई आदमी धार्मिक होकर अपनी धार्मिकता पर गर्व करे, तो इससे कहीं अच्छा है कि वह धार्मिक न होकर 'खाओ-पिओ मौज करो' का क़ायल हो। ऐसा स्वच्छन्दाचारी तो ईश्वर की दया का अधिकारी हो भी सकता है; पर धार्मिकता का अभिमान रखने वाले के लिए इसकी सम्भावना नहीं।
जो हो, जब तक साहित्य का काम केवल मन-बहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियाँ गा-गाकर सुलाना, केवल आँसू बहाकर जी हलका करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था जिसका ग़म दूसरे खाते थे; मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो,––जो हममें गति और संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं; क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"...(पूरा पढ़ें)
"राजस्थान के इतिहास का एक-एक पृष्ठ साहस, मर्दानगी और वीरोचित प्राणोत्सर्ग के कारनामो से जगमगा रहा है। बापा रावल, राणा सांगा, और राणा प्रताप ऐसे-ऐसे उज्ज्वल नाम हैं कि यद्यपि काल के प्रखर प्रवाह ने उन्हें धो बहाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, फिर भी अभी तक जीवित हैं और सदा जीते तथा चमकते रहेंगे। इनमें से किसी ने भी राज्यों की नींव नहीं डाली, बड़ी बड़ी विजयें नहीं प्राप्त कीं, नये राष्ट्र नहीं निर्माण किये, पर इन पूज्य पुरुषों के हृदयों में वह ज्वाला जल रही थी जिसे स्वदेश-प्रेम कहते हैं। वह यह नहीं देख सकते थे कि कोई बाहरी आये और हमारे बराबर का होकर रहे। उन्होंने मुसीबतें उठाईं, जानें गँवाईं पर अपने देश पर कब्जा करनेवालों के कदम उखाड़ने की चिन्ता में सदा जलते-जुड़ते रहे। वह इस नरम विचार वा मध्यम वृत्ति के समर्थक न थे कि 'मैं भी रहूँ और तू भी रह।' उनके दावे ज्यादा मर्दानगी और बहादुरी के थे कि 'रहें तो हम रहें या हमारे जातिवाले, कोई दूसरी कौम हर्गिज़ कदम न जमाने पाये।"...(पूरा पढ़ें)
कपालकुण्डलाबंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित एक बांग्ला उपन्यास है। इसका प्रकाशन १८६६ में हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी द्वारा किया गया था।
"लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व माघ मासमें, एकदिन रातके अन्तिम प्रहरमें, यात्रियोंकी एक नाव गङ्गासागरसे वापस हो रही थी। पुर्तगाली और अन्यान्य नौ-दस्युओंके कारण उस समय ऐसी प्रथा थी कि यात्री लोग गोल बाँधकर नाव-द्वारा यात्रा करते थे। किन्तु इस नौकाके आरोही संगियोंसे रहित थे। उसका प्रधान कारण यह था कि पिछली रातको घोर बादलोंके साथ तूफान आया था; नाविक दिक्भ्रम होनेके कारण अपने दलसे दूर विपथमें आ पड़े थे। इस समय कौन कहाँ था, इसका कोई पता न था। नावके यात्रियोंमें बहुतेरे सो रहे थे। एक वृद्ध और एक युवक केवल जाग रहे थे। वृद्ध युवकके साथ बातें कर रहा था। थोड़ी देरतक बातें करनेके बाद वृद्धने मल्लाहोंसे पूछा—“माझी! आज कितनी दूरतक राह तय कर सकोगे?” माझीने इधर-उधर बहकावा देकर उत्तर दिया—“कह नहीं सकते।”..."पूरा पढ़ें)
सद्गतिप्रेमचंद द्वारा रचित कहानी है। इसी शीर्षक के इस पुस्तक के पहले संस्करण का प्रकाशन 'सर्च'--राज्य संसाधन केन्द्र, हरियाणा द्वारा १९०२ ई॰ में किया गया था।
"दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फ़ुर्सत पा चुके, तो चमारिन ने कहा - 'तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायें।' [ ७ ]दुखी - ‘हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर?'
झुरिया - ‘कहीं से खटिया न मिल जायगी? ठकुराने से माँग लाना।'
दुखी - 'तू भी कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जा कर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा!.."(पूरा पढ़ें)
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